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पर्वत का नजारा |
आम तौर पर पर्वत यात्रा की शुरूआत मधुबन ( मधुबन का पूरा विवरण एक अलग लेख में दूंगा) से सुबह दो बजे से शुरू हो जाती है। मैनें सुबह साढे़ चार बजे पर्वत की चढ़ाई शुरू कर दी। आपको यहां बता दूं कि जैन धर्म में मूल रूप से दो पंथ हैं- एक दिगंबर पथ तथा दूसरा श्वेतांबर। श्वेतांबर मतावलंबी यात्रा करने से पहले मधुबन स्थित जैन श्वेतांबर कोठी के भोमिया जी मंदिर में भोमिया बाबा का दर्शन करना नहीं भूलते। मानते हैं कि भोमिया बाबा के दर्शन से पर्वत यात्रा र्निविघ्न पूरी होती है। सुबह जब तक श्वेतांबबर कोठी का गेट नहीं खुलता तब तक बिना दर्शन किए श्वेतांबरी आगे नहीं बढ़ते। सुबह साढ़े चार बजे अंधेरा ही था पर डोली वाले, गोदी वाले व कुछ दुकानदार पूरी तरह जाग चुके थे। वे व्यक्ति जो शारिरिक रूप से कमजोर होते हैं तथा पैदल पर्वत चढ़ने की हिम्मत नहीं कर पाते हैं वे डोली बूक कर लेते हैं। डोली दो तरह की होती है। एक सादी डोली जिसे दो व्यक्ति उठा कर ले जाते हैं तथा दूसरी कुर्सी डोली होती है जिसे चार लोग उठा कर ले जाते हैं। हलांकि कुर्सी डोली ज्यादा आरामदायक होती है। दोनों का अलग अलग रेट है। डोली वाले यात्री के वजन के हिसाब से डोली का किराया तय करते हैं। अगर आप एक दिन पूर्व कोई डोली बूक नहीं कर पाये हैं तो भी कोई बात नहीं रास्ते में आपको कई डोली वाले मिल जाऐंगे। पर कोई डोली बूक करने से पहले डोलीवालों से डोली का किराया तय कर लें ताकि बाद में कोई किचकिच न हो तथा आपकी यात्रा में भी किसी प्रकार का खलल न पड़े।
पर्वत यात्रा से संबंधित विडियो देखें
पांच बजे मैं पर्वत की तलहटी से पर्वत की चोटी की ओर आगे बढ़ा। शुरूआती आधे घंटे में लगभग डेढ़ किलोमीटर ही चढ़ पाया था। अन्य यात्रियों की भी सांसे फूल रही थी जिन लोगों ने डोली छोड़कर पैदल चलने का निर्णय लिया था वे अब डोली में बैठ चुके थे। तलहटी से डेढ़ किलोमीटर की उंचाई पर कलीकुंड धाम नामक एक श्वेतांबर जैन मंदिर है। कुछ लोगों ने इस मंदिर में जाकर दर्शन किया फिर आगे की चढाई शुरू की। कुछ दूरी तय करने के बाद हम लोग भाता घर पहुंच चुके थे। भाता घर पहुंचने से पहले ही हमें इस यात्रा में पहली बार पानी बहने की आवाज सुनाई दी तथा भाता घर पहुंचते ही एक नाला दृष्टिगोचर हुआ। इस नाला का नाम गंधर्व नाला है, डोली वालों ने यहां थोड़ी देर विश्राम किया। लौटते समय यहां पर तीर्थयात्रियों को भाता ( नाश्ता) दिया जाता है। यहां से आगे बढ़ने के बाद एक और नाला मिलता है जिसका नाम सीता नाला है। यहां आते आते थकान से शरीर निढ़ाल होने लगता है। बैठने का मन कर रहा होता है। यहां नींबू -पानी, चाय आदि की कई दुकाने हैं लिहाजा लोग यहां बैठकर सुस्ताना नहीं भूलते हैं। यहां खाने पीने का सामान आपको महंगा लग सकता है। यहां के दुकानदार मजदूरी देकर ये सभी सामान मधुबन से मंगवाते है, घर छोड़कर दिनरात पहाड़ में रहते हुए दुकानदारी करते हैं तो स्वभावकि है कि ज्यादा कीमत पर बेचेंगे।
सीतानाला के बाद से खड़ी चढ़ाई शुरू हो जाती है। फिर भी यात्रियों के बीच पर्वत की चोटी तक जाने का उत्साह आपको दंग कर देगा। पर्वत यात्रा करने की प्रबल भावना, उत्साह व उमंग के समक्ष लगभग पांच हजार फीट की उंचाई बौनी प्रतीत होने लगती है। तीर्थंकरों का जयकारा लगाते हुए आगे बढ़ती भक्तों को टोली थक चुके लोगों में भी एक नयी उर्जा का संचार करती है। मुश्किल से एक - एक कदम बढ़ाते हुए जब भक्तगण चौपड़ाकुंड तक पहुंचते हैं। यहां एक दिगंबर जैन मंदिर है यहां दर्शन पूजा करने के बाद जब उन्हें यह पता चलता है कि वे अब लगभग पहुंच चुके है। तो कदम बरबस ही मंजिल की ओर तेजी से बढ़ने लगते हैं। हलांकि यह फासला चंद मिनटों का ही है लेकिन इस जगह की खड़ी चढ़ाई किसी का भी उत्साह मंद कर देने में सक्षम है।
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1 टोंक |
मेरी
घड़ी के अनुसार
इस वक्त का
समय आठ बजकर
पांच मिनट है।
मैं अभी गौतम
स्वामी टोंक पर
हूं यानि लगभग
तीन घंटे में
मैनें पर्वत की
चढ़ाई पूरी कर
ली है। पूरब
में सूरज चमक
रहा है वहीं
मंद मंद बह
रही ठंढ़ी हवा
जब शरीर का
स्पर्श करती है
तो लगता है
मानों शरीर का
थकान हर ले
रही है साथ
ही साथ मंदिर
व टोंको की
इस दुनिया में
गर्मजोशी से स्वागत
कर रही हो।
मैनें कई लोगों
को देखा जो
यहां सुस्ताते हुए
प्रकृति की इस
अनुपम छटा को
एकटक निहार रहे
थे। इस अनुपम
दृश्य को अपनी
आंखों में समेट
लेना चाह रहे
थे। वहीं कुछ
अपने मोबाइल व
कैमरे में भी
यहां के हरेक
नयनाभिराम दृश्य को कैद
कर रहे थे।
गौतम स्वामी टोंक
में दर्षन पूजा
के बाद भक्तों
का कारवां पूर्व
दिशा की ओर
बढ़ने लगता है।
यह रास्ता मुनि
सुव्रतनाथ टोक होते
हुए श्री चंद्रप्रभु
टोंक तक जाता
ह। गौतम स्वामी
टोंक से चंद्रप्रभु
टोंक की दूरी
तीन किलोमीटर है।
हलांकि कुछ लोग
गौतम स्वामी टोंक
से सीधे जलमंदिर
चले जाते हैं
जो जिसकी दूरी
महज डेढ़ किलोमीटर
है। यहां ध्यान
देने वाली बात
है कि अगर
ग्यारह बजे के
बाद गौतम स्वामी
टोक पहुंचते हैं
तो फिर बेहतर
होगा कि चंद्रप्रभु
टोक न जायें
क्योंकि बाद में
वह क्षेत्र सुनसान
हो जाता है।
चंद्रप्रभु
टोंक के बाद
भक्तों का जत्था
अनंतनाथ, शीतलनाथ तथा अभिनंदन
स्वामी का टोंक
होते हुए जलमंदिर
पहुंचता हैं। जलमंदिर
में सभी तीर्थंकरों
की प्रतिमा विराजमान
है। मुख्यतः यहां
श्वेतांबर मतावलंबी पूजोपासना करते
हैं। जलमंदिर के
बाद पुनः यात्री
गण गौतमस्वामी टोंक
पहुंचते हैं। उसके
बाद पश्चिम दिशा
में पडने वाले
सभी टोंकों का
दर्शन करते हुए
अंत में पार्श्वनाथ
मंदिर पहुंचते है।
गौतम स्वामी टोंक
से पार्श्वनाथ मंदिर
की दूरी लगभग
डेढ़ किलोमीटर है।
पूरे पर्वत में
24 तीर्थंकरों के अलावा
6 अतिरिक्त टोंक हैं।
मधुबन से गौतम
स्वामी टोंक तक
आने में 9 किलोमीटर
की दूरी तय
करनी पड़ती वहीं
पर्वत के उपर
सभी टोंको का
दर्शन करने में
भी आपको 9 किलोमीट
का फासला तय
करना पड़ेगा। इस
तरह कुल मिलाकर
आने जाने व
मंदिर दर्शन करने
में 27 किलोमीटर की पद
यात्रा पूरी करनी
होगी। यह मंदिर
जैन धर्म के
23वें तीर्थंकर भगवान
पार्श्वनाथ का है
तथा यह पर्वत
की सर्वोच्च चोटी
पर स्थित है।
बताया जाता है
कि भगवान पार्श्वनाथ के नाम
पर ही इस
पर्वत का नाम
पारसनाथ पड़ा। यहां
से दूर दूर
तक पर्वत की
खूबसूरत वादियों को देखना,
सूर्य की किरणों
में विभिन्न टोंको
को चमकते हुए
देखना, कही दूर
से आ रही
ट्रेन की आवाज,
जीटी रोड पर
धुंधली धुंधली सी नजर
आती वाहनों की
कतार, सामने की
चट्टानों पर अठखेलियां
करती बंदरों की
टोलियां तथा तरह
तरह के पक्षियों
का कलरव। ये
कुछ एसी चीजें
हैं जिसे शब्दों
से बयां कर
पाना मुश्किल है,
बस आप इसे
महसूस कर सकते
हैं।
पार्श्वनाथ मंदिर में दर्शन करने के
बाद जब मेरी
नजर घड़ी पर
पड़ी तो ग्यारह
बज चुके थे
और मेरी यात्रा
पूरी हो चुकी
थी। अब वापस
लौटने की यानि
पर्वत से नीचे
उतरने की बारी
थी। डाकबंगला होते
हुए नीचे उतर
गया। लगभग ढाइ्र्र
घंटे बाद मैं
मधुबन वापस आ
चुका था।इस पोस्ट में मैंने पारसनाथ पर्वत यात्रा से संबंधित पूरी जानकारी समेटने की कोशिश की है हलांकि लेख ज्यादा लंबा होने लगा है। फिर भी कुछ चीजों को एक बार फिर याद दिला दूं।
क्या न करें -
शार्ट कर्ट रास्ता कभी न लें। एक तो इससे थकान बढ़ती है उपर से रास्ता ग़ड़बड़ाने की संभावना बनी रहती है। हमेशा पैदल वंदना मार्ग पर ही चलें।
- बंदरों को कुछ भी हाथ से खिलाने की कोशिश न करें।
पर्वत यात्रा कब करें -
यूं तो अब सालोभर कमोबेश तीर्थयात्रियों का आगमन होने लगा है। पर होली, सावन सप्तमी, दिवाली आदि ऐसे अवसर हैं जब भारी संख्या में तीर्थयात्री पहुचते हैं।
- दीपक मिश्रा, देशदुनियावेब
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